Monday, September 7, 2009

पत्रकार ही आपस में भिडे

-अवनीश यादव-
बिल्हौर में एक प्रशासनिक अधिकारी ने अपने मुंहलगे एक दैनिक समाचार पत्र के संवाददाता को मोबाइल गिफ्ट किया। चूंकि एक दूसरे राष्ट्रीय अखबार के संवाददाता का कथित चेला भी उस समय उसके साथ था सो उसने भी दांव मार दिया। लेकिन आए दिन विवादों से घिरे रहने वाले उक्त अधिकारी द्वारा मोबाइल गिफ्ट किए जाने की खबर जब दूसरे अखबार के पत्रकारों को मिली तो उनका पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया। और जब उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ तो वह भी उक्त अधिकारी के पास पहुंच गए और अपना हक मांगने लगे। अधिकारी भी बेचारे क्या करते मजबूरन ही सही उन्हें भी खुश कर दिया। लेकिन बात यहीं पर खत्म नहीं हुई। बात तो यहीं से शुरु हुई। अब दूसरे अखबारों के वह पत्रकार खार खाए हुए हैं जिन्हे मोबाइल नहीं मिल पाया है वह सोंच रहे हैं कि मौका मिले जब अफसर के कपड़े फाड़े जाएं। हालांकि पत्रकार साथी लोग यह भी अच्छी तरह से जानते हैं कि उक्त अधिकारी की शासन में अच्छी पकड़ है। लेकिन वह अपनी आदत से बाज नहीं आ रहे हैं। साथ ही इन पत्रकारों की उन पत्रकारों से भी खुन्नस हो गई है जो मोबाइल गिफ्ट पी गए हैं। लेकिन शायद उनका हाजमा ठीक नहीं था इसलिए हजम नहीं कर पाए। पाठकों मैं आपको यह बताने के लिए यह लेख लिख रहा हूं कि बिल्हौर की पत्रकारिता के इतिहास में मेरी जानकारी में यह पहला वाकया है जिसमें इतने बड़े अधिकारी ने पत्रकारों को खुश करने के लिए मोबाइल गिफ्ट किए हों और इसके कारण पत्रकारों में ही पालेबाजी हो गई हो। कई पत्रकारों ने तो एक-दूसरे से बोलना तक बंद कर दिया है। मैंने भी बिल्हौर (कानपुर) में राष्टीय अखबार अमर उजाला में करीब एक दशक तक काम किया है, लेकिन उस दौर में पत्रकारों और अधिकारियों की इस तरह की टुच्चई से कभी साबका नहीं पड़ा। मेरा कहने का मतलब इतना भर है कि पत्रकार मित्रों इन छोटे-छोटे उपहारों के लिए कम से कम अपनी इज्जत का जनाजा न निकालो और अगर ईमान फिर भी साथ न दे तो कम से कम आपस में लड़ो तो न....।(समाचार मोबाइल गिफ्ट में पाने वाले एक पत्रकार से बातचीत पर आधारित)

Saturday, January 10, 2009

पत्रकार सम्मेलन या तमाशा

पत्रकार सम्मेलन या तमाशा

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मंदी की मार - बेचारा पत्रकार

मंदी की मार - बेचारा पत्रकार
अवनीश यादव
ब्लोगिंग की शरुआत की तो सबसे पहले रोजी-रोटी के लिए संघर्ष कर रहे पत्रकार का ही ख्याल आया स्वाभाविक भी था क्योकि मैंने भी ख़ुद को स्थापित करने के लिए काफी लंबा संघर्ष किया है सच की पहरेदारी करने में भी कई बार इस पेशे से दूरियां बना लेने का ख्याल आया लेकिन ऊपर वाले ने इतना आत्मबल दिया कि नौ वर्ष का करियर पुरा कर चुका हूँ और अपनी तरक्की से काफी हद तक संतुस्ट भी हूँ जिसकी वजह पत्रकारिता कि शुरुआत कसबे से करने के बाद तहसील, जिला और महानगर की पत्रकारिता तक पहुचना रहा है हां इसके लिए किसी बैशाखी का सहारा कभी नही लिया धीरे-धीरे ही आगे बढता गया इन नौ वर्षो में कई उतर-चढाव देखे है, लेकिन आर्थिक मंदी की मार जितनी आधिक मुझे नए पत्रकारों पर पड़तीरही है, उतनी और किसी पर नही
एक दैनिक अखबार ने दर्जन भर उन ट्रेनी पत्रकारों को रिटेनर बना दिया है जो इसी बीते वर्ष नवम्बर के महीने में उपसंपादक पद का ख्वाब संजोय हुए थे इससे सबसे ख़राब यह लगा कि इन पत्रकारों से संसथान ने स्टांप पर यह तक लिखवा लिया कि वह जब चाहे उन्हे निकाल सकता है मंदी की मार झेल रहे मीडिया जगत में दूसरा कोई ठिकाना न होने के कारण बेचारे पत्रकारों के पास इसके सिवाए कोई दूसरा चारा भी नही था यहाँ पर सबसे अधिक तकलीफ कसबे के उन पत्रकारों को हुई है, जिनके लंबे संघर्ष को देखते हुए संसथान ने साल भर पहले ही तरक्की करके ट्रेनी बनाया था इससे उन्की आखो में सतरंगी सपने तैरने लगे थे लेकिन नियति ने आज फ़िर उन्हे उसी जगह पर ला कर खड़ा कर दिया है जहा से साल भर पहले उची उधान के लिए वह आपने घरो से निकल कर पड़ोसी जिलो के ब्यूरो चीफ की कुर्सियों पर पहुचे थे अख़बार के मालिको को अपने इस निर्णय पर विचार करना चाहिए और हो सके तो छटनी में मोटी पगार वाले लोगो पर निशाना साधना चाहिए क्योकि वह तो अपने लिए रोजी-रोटी का कही से जुगाड़ कर ही ले गे वरना नए पत्रकारों के सामने से पेट की आग बुझाने तक का संकट खड़ा हो जाए गा
देखते है होता क्या है ? अभी कितने पत्रकार और बेघर होते है ?