Saturday, January 10, 2009

मंदी की मार - बेचारा पत्रकार

मंदी की मार - बेचारा पत्रकार
अवनीश यादव
ब्लोगिंग की शरुआत की तो सबसे पहले रोजी-रोटी के लिए संघर्ष कर रहे पत्रकार का ही ख्याल आया स्वाभाविक भी था क्योकि मैंने भी ख़ुद को स्थापित करने के लिए काफी लंबा संघर्ष किया है सच की पहरेदारी करने में भी कई बार इस पेशे से दूरियां बना लेने का ख्याल आया लेकिन ऊपर वाले ने इतना आत्मबल दिया कि नौ वर्ष का करियर पुरा कर चुका हूँ और अपनी तरक्की से काफी हद तक संतुस्ट भी हूँ जिसकी वजह पत्रकारिता कि शुरुआत कसबे से करने के बाद तहसील, जिला और महानगर की पत्रकारिता तक पहुचना रहा है हां इसके लिए किसी बैशाखी का सहारा कभी नही लिया धीरे-धीरे ही आगे बढता गया इन नौ वर्षो में कई उतर-चढाव देखे है, लेकिन आर्थिक मंदी की मार जितनी आधिक मुझे नए पत्रकारों पर पड़तीरही है, उतनी और किसी पर नही
एक दैनिक अखबार ने दर्जन भर उन ट्रेनी पत्रकारों को रिटेनर बना दिया है जो इसी बीते वर्ष नवम्बर के महीने में उपसंपादक पद का ख्वाब संजोय हुए थे इससे सबसे ख़राब यह लगा कि इन पत्रकारों से संसथान ने स्टांप पर यह तक लिखवा लिया कि वह जब चाहे उन्हे निकाल सकता है मंदी की मार झेल रहे मीडिया जगत में दूसरा कोई ठिकाना न होने के कारण बेचारे पत्रकारों के पास इसके सिवाए कोई दूसरा चारा भी नही था यहाँ पर सबसे अधिक तकलीफ कसबे के उन पत्रकारों को हुई है, जिनके लंबे संघर्ष को देखते हुए संसथान ने साल भर पहले ही तरक्की करके ट्रेनी बनाया था इससे उन्की आखो में सतरंगी सपने तैरने लगे थे लेकिन नियति ने आज फ़िर उन्हे उसी जगह पर ला कर खड़ा कर दिया है जहा से साल भर पहले उची उधान के लिए वह आपने घरो से निकल कर पड़ोसी जिलो के ब्यूरो चीफ की कुर्सियों पर पहुचे थे अख़बार के मालिको को अपने इस निर्णय पर विचार करना चाहिए और हो सके तो छटनी में मोटी पगार वाले लोगो पर निशाना साधना चाहिए क्योकि वह तो अपने लिए रोजी-रोटी का कही से जुगाड़ कर ही ले गे वरना नए पत्रकारों के सामने से पेट की आग बुझाने तक का संकट खड़ा हो जाए गा
देखते है होता क्या है ? अभी कितने पत्रकार और बेघर होते है ?

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